अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा-सद्भावना के विशेष दिन-पितर पक्ष

अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा-सद्भावना के विशेष दिन-पितर पक्ष
भारतीय संस्कृति में पितर, पुनर्जन्म जैसे शब्दों की विशेष महिमा है। वर्ष में 15 दिन मात्र पितरों के प्रति श्रद्धा-समर्पण के लिए निर्धारित हैं। यही नहीं शास्त्रीय पद्धति में पितरों के लिए पृथ्वी की तरह निवास हेतु एक लोक होने की भी मान्यता है। जहां हमारे पूर्वजों की आत्मायें निवास करती हैं और पृथ्वी वासियों की श्रद्धा अनुसार उनकी मदद करती हैं। ऐसी मान्यता है
अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों के श्राद्ध व तर्पण का विधान है। श्राद्ध पक्ष भाद्रपद माह की पूर्णिमा से प्रारम्भ हो पूरे 16 दिन आश्विन की अमावस तक रहता है। इन 16 दिनों तक पितरों के निमित्त श्राद्ध-तर्पण इत्यादि किए जाते हैं। यम ने नचिकेता से मृतकों पर भ्रम दूर करते हुए बताया था कि मृत्यु के उपरांत जीवात्मा किस प्रकार यमलोक, प्रोतलोक, वृक्ष, वनस्पति आदि योनियों के द्वारा भुवः लोक की यात्र करती है। ट्टग्वेद (10/16) में अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुंचाने में, वंशजों के दान पितृगणों तक पहुंचाकर मृतात्मा को तुष्ट करने व उन्हें भटकने से रक्षा करें।
विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रें में इन्हीं जीव आत्माओं के श्राद्ध-तर्पण का विधान दिया गया है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, वंश परम्परा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना भी है। उन्हें सुदृढ़ रखना भी है।

पितरों की दुनियांः
‘‘पालवन्ति रक्षन्ति वा ते पितरः’’ अर्थात् पितर आत्मायें पालन-पोषण और रक्षण करने वाली होती हैं। गोपथ ब्रह्मण में है कि ‘‘देवा वा ऐते पितरः, स्विष्ठकृतो वै पितरः’’ पालन-पोषण करने वाले और हित सम्पादन करने वाले पितर कहलाते हैं। यजुर्वेद का मंत्र जिसमें पितरों की प्रार्थना हैµ
अत्र पितरो मादमध्वं यथा भागया वृषायथवम्। अमीमदन्त पितरो यथा भागमावृथायिषत्।।
अर्थात् हे पितरों! आप लोगों का आना हमारे सौभाग्य का सूचक है। आप हमारे गृह में आओ और वास करो हम आपके प्रिय पदार्थों को यथायोग्य, यथा सामर्थ्य सत्कार रूप में प्रस्तुत करते हैं, आप प्रसन्न होइये और हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त कीजिए, ताकि हम सुखी, शांत और आनंदित रहें।
हिंदू शास्त्रें में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं, चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प दान, पुण्य, ब्रह्मचारियों, वृद्धों, जरूरतमंद एवं पशु-पक्षी सेवा, गौ सेवा आदि की और तर्पण विधान किया जाता है, वही श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं। पितृपक्ष में हम जो भी धन, अन्न, वस्त्र आदि का अंश पितरों के नाम सेनिकालते हैं, उसे से सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं।

आत्माविज्ञानी बताते हैं कि मृत जीवात्मा का पारस्परिक सम्पर्क-आदान-प्रदान धरती के लोगों से वैसा ही रहता है जैसे पूर्व में था। सूक्ष्म शरीरधारी प्रत्येक जीवात्मायें अपने परिवारीजनों से सहज सम्पर्क साधना चाहती हैं। अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाने के लिए वे अनेक उपाय अपनाती हैं और अपने प्रियजनों के साथ स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग देना चाहते हैं ऐसी मान्यता है।
यही नहीं शास्त्रें में कहा गया है कि जन्म- मरण के चक्र के तहत प्रत्येक जीव स्वर्ग-नरक, प्रेत-पिशाच, पितर, कृमि-कीटक एवं मनुष्य योनि प्राप्त करता है। छान्दोग्योपनिषद में हर जीवात्मा की विभिन्न स्थितियों का वर्णन है। गीता कहती है व्यक्ति अपने जीवन यज्ञ को करते हुए सकाम भाव होने से उसकी जीवात्मा स्वर्ग लोक जाती है और वहां विविध भोगों को पुण्यकर्म समाप्त होने तक भोगने के बाद पुनः इस मृत्युलोक में जन्म लेती है।
अखण्ड ज्योति पत्रिका में वर्णन है कि पितर ऐसी उच्च आत्मायें हैं, जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने स्वभाव संस्कार के तहत दूसरों की यथासम्भव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती है। सूक्ष्म जगत् से सम्बन्ध होने के कारण उनकी जानकारियां भी अधिक होती हैं। उनके पास भविष्य ज्ञान होने से वे सम्बद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने का भी प्रयत्न करती हैं। ऐसी दिव्य आत्माएं, अर्थात् पितर सदाशयी, सद्भाव-सम्पन्न और सहानुभूतिपूर्ण होती हैं। वे कुमार्गगामिता से असंतुष्ट होती तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।
श्राद्ध पक्ष में पिण्डदान और श्राद्ध कर्म के साथ दान, सेवा, उनके निमित्त गुरुकार्यों, गौ सेवा में धन आदि लगाने का महत्व भी यही है कि इनसे स्वजनों की जुड़ी भावनायें पितरों को स्पर्श करें। योगवासिष्ठ बढ़ती हैंकि मृत्यु के उपरान्त प्रेत यानी मरे हुए जीव अपने बन्धु-बान्धवों के पिण्डदान द्वारा ही अपना शरीर तृप्त हुआ अनुभव करते हैं.
आदौ मृता वयमिति बुध्यन्ते तदनुक्रमात्। बंधु पिण्डादिदानेन प्रोत्पन्ना इति वेदिनः।।
हम पितरों के प्रति श्राद्धपक्ष में अपनी श्रद्धा व्यक्त करके उनका आशीर्वाद लेते हैं। पितर पक्ष अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए महत्वपूर्ण अवसर होता है।

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